एक महात्मा बड़े ज्ञानी थे। वे
प्राय: अपने शिष्यों को रामायण, महाभारत
और नीति ग्रंथों की अच्छी बातें बताकर उन्हें अपने आचरण में उतारने का आग्रह करते
थे। प्रतिदिन संध्या को वे प्रवचन करते और श्रोताओं को इन धर्मग्रंथों की कथाएं व
दृष्टांत सुनाकर उनमें सदाचरण जाग्रत करने का प्रयास करते थे। स्वयं महात्माजी का
आचरण भी तदनुकूल ही था।
वे कंदमूल खाते, कभी किसी वस्तु की इच्छा न करते थे और संग्रह में उनकी कदापि रुचि नहीं थी। यदि कोई शिष्य अथवा श्रोता श्रद्धापूर्वक उन्हें कुछ भेंट करता तो वे तत्क्षण उसे किसी जरूरतमंद को दान कर देते। प्रवचन के पश्चात लोगों के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का भी महात्माजी समाधान करते।
वे प्राय: रामायण आदि ग्रंथों से शिक्षा ग्रहण करने की बात कहते थे। एक दिन किसी व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया - ‘महात्माजी! रामायण को सही माना जाए या गलत?’ उन्होंने उत्तर दिया - ‘वत्स! जब रामायण की रचना हुई थी, तब मैं नहीं था। रामजी वन में विचरण कर रहे थे, तब भी मेरा अता-पता नहीं था। इसलिए मैं बता नहीं सकता कि रामायण सही है या गलत। मैं तो सिर्फ इतना बता सकता हूं कि इसके अध्ययन एवं शिक्षा से मैं सुधरकर इस स्थिति में हूं। चाहो तो तुम भी इसका प्रयोग कर अपना जीवन बेहतर बना सकते हो।’
वे कंदमूल खाते, कभी किसी वस्तु की इच्छा न करते थे और संग्रह में उनकी कदापि रुचि नहीं थी। यदि कोई शिष्य अथवा श्रोता श्रद्धापूर्वक उन्हें कुछ भेंट करता तो वे तत्क्षण उसे किसी जरूरतमंद को दान कर देते। प्रवचन के पश्चात लोगों के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का भी महात्माजी समाधान करते।
वे प्राय: रामायण आदि ग्रंथों से शिक्षा ग्रहण करने की बात कहते थे। एक दिन किसी व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया - ‘महात्माजी! रामायण को सही माना जाए या गलत?’ उन्होंने उत्तर दिया - ‘वत्स! जब रामायण की रचना हुई थी, तब मैं नहीं था। रामजी वन में विचरण कर रहे थे, तब भी मेरा अता-पता नहीं था। इसलिए मैं बता नहीं सकता कि रामायण सही है या गलत। मैं तो सिर्फ इतना बता सकता हूं कि इसके अध्ययन एवं शिक्षा से मैं सुधरकर इस स्थिति में हूं। चाहो तो तुम भी इसका प्रयोग कर अपना जीवन बेहतर बना सकते हो।’
सार यह है कि धर्मग्रंथ व
नीतिग्रंथ तर्क का विषय नहीं होते। उनमें सतोमुखी जीवन के तत्व होते हैं। अत: उनसे
अपने जीवन को सार्थकता देने की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, न कि उन्हें तर्क की कसौटी पर कसना चाहिए।