स्वामी विवेकानंद ने कर्तव्य और कर्मयोग को सर्वोपरि बताया है। कोई भी काम छोटा-बडा नहीं होता, यह उनके इस व्याख्यान से पता चलता है..
यदि कोई मनुष्य संसार से विरक्त होकर ईश्वरोपासना में लग जाए, तो उसे यह नहीं समझना चाहिए कि जो लोग संसार में रहकर संसार के हित के लिए कार्य करते हैं, वे ईश्वर की उपासना नहीं करते। संसार के हित में काम करना भी एक उपासना ही है। अपने-अपने स्थान पर सभी बडे हैं।
इस संबंध में मुझे एक कहानी का स्मरण आ रहा है। एक राजा था। वह संन्यासियों से सदैव पूछा करता था-संसार का त्याग कर जो संन्यास ग्रहण करता है, वह श्रेष्ठ है, या संसार में रहकर जो गृहस्थ के कर्तव्य निभाता है?
नगर में एक तरुण संन्यासी आए। राजा ने उनसे भी यही प्रश्न किया। संन्यासी ने कहा, हे राजन् अपने-अपने स्थान पर दोनों ही श्रेष्ठ हैं, कोई भी कम नहीं है। राजा ने उसका प्रमाण मांगा। संन्यासी ने उत्तर दिया, हां, मैं इसे सिद्ध कर दूंगा, परंतु आपको कुछ दिन मेरे साथ मेरी तरह जीवन व्यतीत करना होगा। राजा ने संन्यासी की बात मान ली।
वे एक बडे राज्य में आ पहुंचे। राजधानी में उत्सव मनाया जा रहा था। घोषणा करने वाले ने चिल्लाकर कहा, इस देश की राजकुमारी का स्वयंवर होने वाला है। जिस राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा था, वह संसार में अद्वितीय सुंदरी थी और उसका भावी पति ही उसके पिता के बाद उसके राज्य का उत्तराधिकारी होने वाला था। इस राजकुमारी का विचार एक अत्यंत सुंदर पुरुष से विवाह करने का था, परंतु उसे योग्य व्यक्ति मिलता ही न था।
राजकुमारी रत्नजटित सिंहासन पर बैठकर आई। उसके वाहक उसे एक राजकुमार के सामने से दूसरे के सामने ले गए। इतने ही में वहां एक दूसरा तरुण संन्यासी आ पहुंचा। वह इतना सुंदर था कि मानो सूर्यदेव ही आकाश छोडकर उतर आए हों। राजकुमारी का सिंहासन उसके समीप आया और ज्यों ही उसने संन्यासी को देखा, त्यों ही वह रुक गई और उसके गले में वरमालाडाल दी।
तरुण संन्यासी ने एकदम माला को रोक लिया और कहा, मैं संन्यासी हूं मुझे विवाह से क्या प्रयोजन? राजा ने उससे कहा, देखो, मेरी कन्या के साथ तुम्हें मेरा आधा राज्य अभी मिल जाएगा और संपूर्ण राज्य मेरी मृत्यु के बाद। लेकिन संन्यासी वह सभा छोडकर चला गया। राजकुमारी इस युवा पर इतनी मोहित हो गई कि युवा संन्यासी के पीछे-पीछे चल पडी।
दूसरे राज्य के राजा को लेकर आए संन्यासी भी पीछे-पीछे चल दिए। जंगल में जाकर संन्यासी नजरों से ओझल हो गया। हताश होकर राजकुमारी वृक्ष के नीचे बैठ गई। इतने में राजा और संन्यासी उसके पास आ गए। रात हो गई थी। उस पेड की एक डाली पर एक छोटी चिडिया, उसकी स्त्री तथा उसके तीन बच्चे रहते थे। उस चिडिया ने पेड के नीचे इन तीन लोगों को देखा और अपनी स्त्री से कहा, देखो हमारे यहां ये लोग अतिथि हैं, जाडे का मौसम है। आग जलानी चाहिए। वह एक जलती हुई लकडी का टुकडा अपनी चोंच में दबा कर लाया और उसे अतिथियों के सामने गिरा दिया। उन्होंने उसमें लकडी लगा-लगाकर आग तैयार कर ली, परंतु चिडिया को संतोष नहीं हुआ। उसने अपनी स्त्री से फिर कहा, ये लोग भूखे हैं। हमारा धर्म है कि अतिथि को भोजन कराएं। यह कहकर वह आग में कूद पडा और भुन गया। उस चिडिया की स्त्री ने मन में कहा, ये तो तीन लोग हैं, उनके भोजन के लिए केवल एक ही चिडिया पर्याप्त नहीं। पत्नी के रूप में मेरा कर्तव्य है कि अपने पति के परिश्रमों को मैं व्यर्थ न जाने दूं। वह भी आग में गिर गई और भुन गई। इसके बाद उन तीन छोटे बच्चों ने भी यही किया।
तब संन्यासी ने राजा से कहा, देखो राजन, तुम्हें अब ज्ञात हो गया है कि अपने-अपने स्थान में सब बडे हैं। यदि तुम संसार में रहना चाहते हो, तो इन चिडियों के समान रहो, दूसरों के लिए अपना जीवन दे देने को सदैव तत्पर रहो। और यदि तुम संसार छोडना चाहते हो, तो उस युवा संन्यासी के समान हो, जिसके लिए वह परम सुंदरी स्त्री और एक राज्य भी तृणवत था। अपने-अपने स्थान में सब श्रेष्ठ हैं, परंतु एक का कर्तव्य दूसरे का कर्तव्य नहीं हो सकता।
No comments:
Post a Comment