Sunday, April 17, 2011

मौन



महान संत महर्षि रमण मौन रहते हुए भी अपने पास आने वालों की सूक्ष्म से सूक्ष्म शंकाओं का समाधान कर देते थे। महात्मा गांधी सप्ताह में एक दिन मौन रहा करते थे। मौन आंतरिक आनंद लुटाता है। यह हमारी आत्मा की आवाज है। इसकी साधना से हमें वे सभी सिद्धियां मिल जाती हैं, जो अन्य कठिन योग साधनाओं से भी प्राप्त नहीं हो पाती हैं।
वाणी चार प्रकार की होती है। नाभि में परावाणी, हृदय में पश्यंति,कंठ में मध्यमा वाणी और मुख में वैखरी वाणी निवास करती है। हम शब्दों की उत्पत्ति परावाणीमें करते हैं, लेकिन जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुख में स्थित वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है। इनमें परा और पश्यंतिसूक्ष्म तथा मध्यमा व वैखरी स्थूल है। अनावश्यक वाणी को अपने मुंह से नहीं निकालना और आवश्यक कथन में भी वाणी का संयम हमारे लिए बहुत बडी साधना है। हमारे योग साहित्य में दो प्रकार के मौन का उल्लेख किया गया है। प्रथम मौन का सीधा संबंध वाणी से है, जो बहिमौनकहलाता है। अपनी वाणी को वश में करना, न बोलना बहिमौनके अंतर्गत आता है। दूसरा मौन आत्मा से जुडा है, जो अंतमौनकहलाता है। ईष्र्या-द्वेष या अपवित्र विचारों को अपने मन से निकाल कर आत्मोन्मुखीबनना अन्तमौनहै। दूसरों के हित के लिए कहा गया कथन भी मौन के अंतर्गत आता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने मौन की महत्ता जान ली है, वह दुख से कभी विचलित नहीं हो सकता। वह न तो सुख में मगन हो सकता है और न ही दुख से दुखी। वह राग, द्वेष, भय, क्रोध आदि विकारों से दूर रहता है। सच्चे अर्थो में ऐसे व्यक्ति ही साधु कहलाते हैं। यदि आप मौन रहते हैं, तो स्पष्ट है कि आप सहनशील हैं। आप यदि अध्यात्म-पथ की ओर उन्मुख होना चाहते हैं, तो मौन आपके लिए सशक्त माध्यम है। मानसिक तनाव, व्याकुलता और अशांति के क्षण में यह क्षण शांतिदायकहोता है। कहा गया है कि मौन व्रत में ही मुनि जनों की प्रतिष्ठा सुरक्षित रहती है। जो कार्य बोलने से नहीं हो पाता है, वह इससे सहज, सरल बन जाता है। यदि आप कलह और निंदा से बचना चाहते हैं, तो उसका एकमात्र उपाय मौन है।

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