किसी आध्यात्मिक पुरुष या विशेष व्यक्ति को गरिमा प्रदान करने और सम्मान देने के लिए उसके नाम के आगे श्री लिखने का प्रचलन है। श्री की उत्पत्ति और अस्तित्व के संदर्भ में वेद, पुराण, उपनिषदों और किंवदंतियोंमें अलग-अलग व्याख्या दी गई है। कहीं लक्ष्मी को श्री कहा गया है, तो कहीं अलग-अलग होते हुए एक होने की बात कही गई है।
लेकिन श्री को लक्ष्मी, शोभा, सौंदर्य के अर्र्थो में प्रयुक्त किया जाता है।[आंतरिक सौंदर्य] :विद्वानों का मानना है कि व्यक्तित्व को आंतरिक सौंदर्य, व्यावहारिक तेजस्विता और भौतिक समृद्धि के प्रति प्रयत्नशील रहने के संकेत श्री से प्राप्त होते हैं। आत्मिक और भौतिक प्रगति के संतुलन से ही व्यक्तित्व का चहुंमुखी विकास होता है। श्री को नाम के पहले जोडने में इसी सद्भावना और शुभकामना की अभिव्यंजना होती है कि वे श्रीवान्बनें, सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर हों। धर्माचार्यो के अनुसार, व्यक्तित्व को समुन्नत, सुविकसित, समृद्ध और कांतिवानबनाने के संपूर्ण तत्व श्री में समाहित हैं। जो इस बारे में सोचते, विचारतेऔर वैसा बनने के लिए तदनुरूप कदम बढाते हैं, वास्तव में वही श्रीमान या श्रीवान कहलाते हैं। [श्री की उत्पत्ति] :शतपथब्राह्मण की एक कथा में श्री की उत्पत्ति का वर्णन है। इस कथा के अनुसार, श्री प्रजापति ब्रह्मा जी के अंतस से आविर्भूत होती हैं। वह अपूर्व सौंदर्य और तेजससे संपन्न हैं। प्रजापति ब्रह्मा उनका अभिनंदन करते हैं और बदले में उन आद्य देवी से सृजन क्षमता का वरदान प्राप्त करते हैं। ऋग्वेद में श्री और लक्ष्मी को एक ही अर्थ में प्रयुक्त माना गया है। तैत्तरीय उपनिषद में श्री का अन्न, जल, गोदुग्ध और वस्त्र जैसी समृद्धियां प्रदान करने वाली आद्य शक्ति के रूप में उल्लेख मिलता है। गृह सूत्रों में उन्हें उत्पादन की उर्वरा शक्ति माना गया है। यजुर्वेद में श्री और लक्ष्मी को विष्णु की दो पत्नियां कहकर उल्लेख किया गया है-श्रीश्चते लक्ष्मीश्चतेसपत्नयौ।श्रीसूक्तमें भी दोनों को भिन्न मानते हुए अभिन्न उद्देश्य पूरा कर सकने वाली बताया गया है-श्रीश्च लक्ष्मीश्च।इस निरूपण में श्री को तेजस्विता और लक्ष्मी को सम्पदा के अर्थ में लिया गया है। शतपथब्राह्मण में श्री की फलश्रुति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वह जिन दिव्यात्माओंमें निवास करती है, वे तेजोमय हो जाते हैं। अथर्ववेदमें पृथ्वी के अर्थ में श्री का प्रयोग अधिक हुआ है। वेद मंत्रों में धरती माता और मातृभूमि के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति के लिए श्री के उच्चारण का स्पष्ट संकेत है। गोपथब्राह्मण में श्री की चर्चा शोभा या सौंदर्य के रूप में हुई है। श्री सूक्त में इसकी जितनी विशेषताएं बताई गई हैं, उनमें सुंदरता सर्वोपरि है। वाजसनेयीआरण्यक में श्री और लक्ष्मी की उत्पत्ति अलग-अलग बताई गई है, लेकिन बाद में दोनों के एकात्म होने की कथा है। आरण्यक के आधार पर अंतत:श्री और लक्ष्मी एक ही है।[श्री का प्रतीक चित्रण] :चित्र में श्री अर्थात लक्ष्मी कमल पर विराजमान होती हैं। साथ ही, हाथियों द्वारा स्वर्ण कलश से स्वागत करने का चित्रण मिलता है। कमल सौंदर्य का प्रतीक है। गज साहस को दर्शाता है। स्वर्ण वैभव का चिह्न है, जल शांति, शीतलताऔर संतोष का द्योतक है। इन विशेषताओं के समुच्चय को हम श्री या लक्ष्मी कह सकते हैं। कन्याओं को गृहलक्ष्मीकहने की प्रथा है। यह व्यर्थ नहीं है। वास्तव में, उनमें लक्ष्मी तत्व की ज्यादातर विशेषताएं मौजूद होती हैं। ऐसे में विवाहोपरांतउनका गृहलक्ष्मीकहलाना उचित है। पुराणों में श्री की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई है। यहां पर इसका भाव प्रबल पुरुषार्थ का है। कल्पसूत्रकी एक कथा में भगवान महावीर की माता त्रिशलाने दिव्य स्वप्न में श्री के दर्शन किए थे। इस दिव्य दर्शन के बाद ही महावीर के जन्म लेने की कथा है।
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