वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पांचरात्र मत है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या 'भगवत' कहा गया है और भगवत के उपासक भागवत कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं। 'महाभारत'[1] के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है। नारद पांचरात्र के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का 'रात्र' अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है। 'ईश्वरसंहिता', 'पाद्मतन्त', 'विष्णुसंहिता' और 'परमसंहिता' ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है। 'शतपथ ब्राह्मण'[2] के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।
प्रारम्भ
यह अनुमान है कि लगभग 600 ई.पू. जिस समय ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे, उससे भी पहले से अपेक्षाकृत शान्त, किन्तु स्थिर ढंग से एक उपासना प्रधान सम्प्रदाय विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से वृष्णि-वंशीय क्षत्रियों की सात्वत नामक जाति में सीमित था। वैदिक परम्परा का इसने सीधा विरोध नहीं किया, प्रत्युत अपने अहिंसाप्रधान धर्म को वेद-विहित ही बताया। इस कारण कि उसकी प्रवृत्ति बौद्ध और जैन सुधार-आन्दोलनों की भाँति खण्डनात्मक और प्रबल उपचारात्मक नहीं थी, इस सम्प्रदाय की वैसी धूम नहीं मची। ई.पू. चौथी शती में पाणिनि की अष्टाध्यायी के[3] सूत्र से वासुदेव के उपासक का प्रमाण मिलता है। ई.पू. तीसरी-चौथी शती से पहली शती तक वासुदेवोपासना के अनेक प्रमाण प्राचीन साहित्य और पुरातत्त्व में मिले हैं।
प्रचलन
जैनों के सलाक पुरुषों में वासुदेव और बलदेव भी हैं तथा अरिष्टनेमि और वासुदेव के सम्बन्ध का भी उल्लेख प्राचीन जैन साहित्य में मिलता है। बौद्धजातकों (घत और महा उमग्ग) में वासुदेव की कथा कही गयी है। बौद्ध साहित्य के 'चुल्लनिद्देस' मे आजीवक, निगंठ, जटिल बलदेव आदि श्रावकों के साथ वासुदेव को पूजने वाले वासुदेवकों का भी उल्लेख हुआ है, जिससे सूचित होता है कि यह सम्प्रदाय तीसरी-चौथी शती ई.पू. में विद्यमान था। इसी काल में चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा के यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने 'सौरसेनाई' (शौरसेनी) जाति में जो 'जोबेरीज' (यमुना) नदी के किनारे बसती थी और 'मेथोरा' (मथुरा) और क्लीसोबोरा (कृष्णपुर) जिसके प्रधान नगर थे, हेराक्लीज (कृष्ण) के विशेष रूप से पूजे जाने का उल्लेख किया है। 200 ई. पू. के वेसनगर (भिलसा) के एक स्तम्भ लेख के अनुसार बैक्ट्रिया के राजदूत हेलियाडोरस ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरूड़स्तम्भ का निर्माण कराया था। वह अपने को भागवत कहता था। ई.पू. पहली शती के नानाघाट के गुहाभिलेख में अन्य देवताओं के साथ संकर्षण और वासुदेव का भी नामोल्लेख है। इसी समय का एक और शिलालेख चित्तौड़गढ़ के समीप घोसुण्डी में मिला है, जिसमें कण्ववंशी राजा सर्वतात द्वारा अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर भगवान संकर्षण और वासुदेव के मन्दिर के लिए 'पूजाशिला-प्राकार' बनवाये जाने का उल्लेख है। मथुरा के एक महाक्षत्रप शोडास (ई.पू. 80-57) के समय के एक शिलालेख के अनुसार वसु नामक एक व्यक्ति ने महास्थान (जन्मस्थान मथुरा) में भगवान वासुदेव का मन्दिर बनवाया था। इन प्रमाणों से सूचित होता है कि भागवत धर्म का सबसे पहला नाम वासुदेव धर्म या वासुदेवोपासना है। भागवत नाम भी ई.पू. दूसरी-तीसरी शती में प्रचलित हो गया था। प्रारम्भ में यह उपासना-मार्ग शूरसेन (आधुनिक ब्रजप्रदेश) में बसने वाली सात्वत जाति में सीमित था, परन्तु इसका प्रचार कदाचित सात्वतों के स्थानान्तरण के फलस्वरूप ई.पू. दूसरी-तीसरी शताब्दियों में ही पश्चिम की ओर भी हो गया था तथा कुछ विदेशी (यूनानी) लोग भी इसे मानने लगे थे।
दक्षिण के प्राचीन तमिल साहित्य में वासुदेव, संकर्षण तथा कृष्ण के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। इन सन्दर्भों के आधार पर अनुमान किया गया है कि उपर्युक्त सात्वत लोग, जो वैदिक पुरूवंशक एक जाति विशेष के थे, मगध के राजा जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्तप्रदेश की ओर चले गये। मार्ग में इनमें से कुछ लोग पालव और उसके दक्षिण की ओर बस गये और वहीं से दक्षिण देश के सम्पूर्ण उत्तरी क्षेत्र तथा कोंकण में फैल गये। इन्हीं में से कुछ और दक्षिण की ओर चले गये। दक्षिण के अद्विया, अण्डार और इडैयर जातियों के लोग पशुपालक अहीर या आभीरों के समकक्ष हैं। सात्वत जाति भी पशुपालक क्षत्रियों की जाति थी। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में दक्षिण के सात्वतों द्वारा इन्द्र के अभिषेक का उल्लेख मिलता है। यह मालूम होता है कि सात्वतों का दक्षिणगमन उससे पहले हो चुका था। वे अपने साथ अपनी धार्मिक परम्पराएँ भी अवश्य लेते गये होंगे।
साहित्यिक उल्लेख
भागवत धर्म भी प्रारम्भ में क्षत्रियों द्वारा चलाया हुआ एक अब्राह्मण उपासना-मार्ग था परन्तु कालान्तर में सम्भवत: अवैदिक और नास्तिक जैन-बौद्ध मतों का प्राबल्य देखकर ब्राह्मणों ने उसे अपना लिया और वैष्णव या नारायणीय धर्म के रूप में उसका विधिवत संघटन किया। 'महाभारत' शान्तिपर्व[4] के नारायणीय उपाख्यान में इस नवीन धर्म को वैष्णव यज्ञ कहा गया है और यज्ञ प्रधान वैदिक कर्मकाण्ड के प्रवृत्ति-मार्ग के विपरीत इसे निवृत्ति-मार्ग बताया गया है। इस वैष्णव यज्ञ में पशुवध का स्पष्ट रूप में निषेध तथा तप, सत्य, अहिंसा और इन्द्रियनिग्रह का विधान किया गया था। 'महाभारत' में ही वासुदेव को वैदिक देवता विष्णु से अभिन्न बताया गया तथा साथ ही कृष्ण को भी द्वितीय वासुदेव के रूप में उन्हीं का अवतार प्रसिद्ध किया गया। ऋग्वेद में विष्णु-सम्बन्धी जो थोड़ी-सी ऋचाएँ मिलती हैं, उनमें उनका अत्यन्त भव्य वर्णन हुआ है। वे त्रिविक्रम हैं तीन पाद-प्रक्षेपों में समग्र संसार को नाप लेते हैं[5] इसीलिए वे उरूगाय (विस्तीर्ण गतिवाले) और उरूक्रम (विस्तीर्णपाद-प्रक्षेपवाले) कहे गये हैं। उनका तीसरा पद-क्रम सबसे ऊँचा है। उनके परमपद में मधु का उत्स है। विष्णु पृथ्वी पर लोकों के निर्माता हैं, ऊर्ध्वलोक में आकाश को स्थिर करने वाले हैं तथा तीन डगों से सर्वस्व को नापने वाले हैं। ऋग्वेद में विष्णु को अजेय गोप विष्णुर्गोपा अदाभ्य:[6] भी कहा गया है। उनके परमपद में भूरिश्रृंगा चंचल गायों का निवास है।[7] उनका वह सर्वोच्च लोक गोलोक कहलाता है। यज्ञ-प्रधान ब्राह्मण-काल में विष्णु का महत्त्व बढ़ता गया। उन्हें स्वयं 'यज्ञ' की संज्ञा दी गयी। उनकी अपेक्षा वैदिक देवता अग्नि को हीन बताया गया है। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में उल्लेख है, कि विष्णु ने असुरों से छीनकर समस्त पृथ्वी इन्द्र को दे दी थी। ऐतरेय ब्राह्मण[8] और 'शतपथ ब्राह्मण'[9] में भी इसी प्रकार का एक उल्लेख है। इस प्रकार सर्वाधिक शक्तिशाली वैदिक देवता इन्द्र की अपेक्षा विष्णु की महत्ता ब्राह्मण काल से ही बढ़ने लगी थी। ब्राह्मण ग्रन्थों से विष्णु के अवतारों- वामन, वराह, मत्स्य और कूर्म सम्बन्धी प्रमाण भी एकत्र किये गये हैं। जो हो, पशु-यज्ञ-विरोधी नवीन धर्म के उपास्य बनने के लिए वैदिक देवताओं में विष्णु ही सबसे अधिक उपयुक्त थे और इसीलिए 'महाभारत' में उन्हें वासुदेव से अभिन्न बताया गया तथा वासुदेवोपासकों के सात्वत धर्म को वैष्णव धर्म के नाम से प्रसिद्ध किया गया।
नारायण वासुदेव
कृष्ण मूल वासुदेव या पर वासुदेव से भिन्न हैं, ऐसा अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है। कृष्ण सम्बन्धी वैदिक उल्लेखों- अंगिरस ऋषि, कृष्ण और कृष्सुर के उल्लेखों में उनके वासुदेव होने का कोई संकेत नहीं है।
छान्दोग्य उपनिषद- तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक 'छान्दोग्य उपनिषद' के देवकी पुत्र कृष्ण घोर आंगिरस के शिष्य हैं और वे गुरु से ऐसा ज्ञान उपलब्ध करते हैं, जिससे फिर कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता तथा यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति सीखते हैं, जिसकी दक्षिणा तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य है[10] इससे स्पष्ट विदित होता है आंगिरस गोत्र का घोर नामक ऋषि वैदिक आंगिरस का उत्तराधिकारी था। आंगिरसों में सबसे प्रमुख बृहस्पति कहे गये हैं, जिन्हें किसी समय पांचरात्र का ज्ञान सौंपा गया था घोर आंगिरस ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपर्युक्त यज्ञ की विधि बतायी थी, वह भी भागवत यज्ञ या वैष्णव यज्ञ की ही थी, अत: देवकी-पुत्र कृष्ण या वासुदेव (कृष्ण) भागवत धर्म के आदि प्रवर्तक नहीं थे। यह बात स्वयं गीता[11] से प्रमाणित होती है कि कृष्ण से भिन्न कोई और वासुदेव पहले हो चुका था। 'महाभारत' शान्तिपर्व में वर्णित उपर्युक्त वैष्णव यज्ञ के उपास्य का असली नाम नारायण है, जिन्हें विष्णु से अभिन्न कहकर बताया गया है कि यही नारायण वासुदेव हैं और यही दुरात्मा कंस का नाश करने के लिए द्वापर और कलि युग की सन्धि में मथुरा में जन्म लेंगे। विष्णु ने कूर्म, मत्स्य, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण का अवतार लिया और कलयुग में कल्कि अवतार लेंगे।[12]
विभिन्न काल
अनेक प्रमाणों से यह स्पष्ट विदित होता है कि महाभारत के समय तक अध्यात्मतत्त्व के देवता नारायण, ऐतिहासिक पूज्य पुरुष वासुदेव और वैदिक देवता उरूगाय विष्णु एकाकार होकर भारत-युद्ध के कृष्ण में समन्वित होने लगे थे और नाना प्रकार से यह उद्योग होने लगा था कि कृष्ण ही एकमात्र द्वितीय वासुदेव, नारायण, हरि, भगवत और विष्णु के अवतार हैं। हरिवंश तथा अनेक पुराणों में कृष्ण के एकमात्र द्वितीय वासुदेव होने के, श्रृगाल वासुदेव और पोण्ड्र, वासुदेव सम्बन्धी आख्यान मिलते हैं। महाभारत और पुराणों में कृष्ण को सात्त्वतर्षभ कहा गया है, जिससे कृष्ण के भी वृष्णिवंशीय सात्त्वत होने की सूचना मिलती है। इस प्रकार सात्त्वतों के कुल-धर्म को महाभारत और पुराणों की सहायता से एक व्यापक लोकधर्म बनाने का सतत उद्योग किया गया। कदाचित भागवत धर्म की यह परिणति चौथी-पाँचवीं शताब्दी में गुप्त वंश के राज्यकाल में हुई। गुप्त सम्राट अपने को परम भागवत घोषित करने में गर्व का अनुभव करते थे। उन्होंने पौराणिक वैष्णव धर्म को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। फिर भी गुप्तवंश की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप शैव और बौद्ध धर्म भी यथेष्ट उन्नति कर रहे थे। वैदिक ब्राह्मण धर्म का स्मार्त रूप, जिसमें विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य और गणेश- इन पाँच देवताओं की पूजा विहित थी, व्यापक प्रचार पा रहा था। वैष्णव धर्म के प्रचार से ही अहिंसा और अवतारवाद के सिद्धान्त का व्यापक रूप में प्रचलन हो गया था। इस प्रकार लगभग 600 ई. पू. से 500 ई. तक भागवत धर्म के प्रथम उत्थानकाल में ही उसके प्रचार के प्रचुर साधन पौराणिक साहित्य के रूप में तैयार हो गये थे। रामायण और महाभारत की भी वैष्णव परिणति हो चुकी थी।
भक्ति
छठी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी की लगभग समाप्ति तक उत्तर भारत में भागवत धर्म उन्नति नहीं कर सका। स्मार्त वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म में लोकरूचि को आकृष्ट करने की होड़ सी हो रही थी। इसी प्रतिस्पर्धा में बौद्ध धर्म ने एक ओर वैष्णव धर्म की अनेक बातें अपना लीं तथा दूसरी ओर लोक-विश्वासों और लोक-प्रथाओं को अपनाता हुआ वह महायान, मन्त्रयान, वज्रयान, सहजयान आदि रूपों में परिणत होता हुआ धीरे-धीरे नाम शेष हो गया। पौराणिक धर्म और शंकराचार्य के उद्योग भी बौद्ध-धर्म को नष्ट करने में धीरे-धीरे सफल होने लगे। परन्तु इस काल में दक्षिण भारत में भागवत धर्म का उत्कर्ष हो रहा था। दक्षिण के आलवार भक्तों की परम्परा नवीं शताब्दी तक अविच्छिन्न चलती रही। उनकी भक्ति में प्रपत्ति की भावना और भगवान के अनुग्रह का सबसे अधिक महत्त्व है। आलवारों की संख्या बारह मानी जाती है। इनके भावपूर्ण गीत तमिल के 'प्रबन्धम' में संगृहीत हैं, जिन्हें तमिल वेद की संज्ञा दी जाती है। इन आलवार भक्तों में गोदा या अण्डाल नाम की एक प्रसिद्ध स्त्री भक्त भी हुई है। इन प्रपत्तिभाव प्रधान भक्तों ने विष्णु, वासुदेव या नारायण तथा उनके अवतार राम और कृष्ण के प्रति अनन्यभाव का प्रेम प्रकट किया है तथा कृष्ण और गोपियों की आनन्द-क्रीड़ाओं का तन्मयतापूर्वक वर्णन करते हुए उनके प्रति दास्य, वात्सल्य और माधुर्य भाव की भक्ति प्रकट की है।
ग्रन्थ
आलवारों की भक्तिभावपूर्ण गीति-रचनाओं में केवल भक्ति के साधन पक्ष का उद्घाटन मिलता है। नवीं-दसवीं शती में तमिल प्रदेश में ही आलवारों के भक्ति आन्दोलन को वैदिक और शास्त्रीय रूप देने वाले आचार्यों का उदय हुआ। शंकर मायावाद-अद्वैतवाद के साथ भक्ति का सामंजस्य कैसे हो, यह एक विकट समस्या थी। अत: अद्वैत के स्थान पर विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन किया गया और मायावाद का प्रबल तर्कों के आधार पर खण्डन किया गया। सबसे पहले आचार्य रंगनाथ मुनि (824-924 ई.) हुए, जो नाथ मुनि के नाम से प्रसिद्ध हैं। लुप्तप्राय तमिल वेद[13] का उद्धार करके उन्होंने श्रीरंगम के प्रसिद्ध मन्दिर में उसके गायन की व्यवस्था की। 'योगरहस्य' और 'न्याय-तत्त्व' नामक इनके दो संस्कृत ग्रन्थ भी कहे जाते हैं, जिनमें विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन हुआ है। नाथ मुनि के पौत्र यामुनाचार्य (आलबंदार) हुए, जिन्होंने 'गीतार्थ-संग्रह, 'सिद्धित्रय', 'महापुरुष-निर्णय' और 'आगम-प्रामाण्य' आदि अनेक ग्रन्थों की रचना करके विशिष्टद्वैत सिद्धान्त का समर्थन, मायावाद का खण्डन, विष्णु की श्रेष्ठता का प्रतिपादन तथा पांचरात्र-सिद्धान्त की वैदिक प्रामाणिकता की स्थापना की। परन्तु वैष्णव आचार्यो में सबसे अधिक प्रसिद्ध श्री रामानुजाचार्य (1016-1137) हुए। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर 'श्रीभाष्य' लिखा। इसके अतिरिक्त 'वेदार्थसंग्रह', 'वेदान्तसार', 'वेदान्तदीप', 'गद्यत्रय' और 'गीताभाष्य' की रचना करके इन्होंने शंकर अद्वैत', और भेदाभेद वादी भास्कर मत का खण्डन अपने मायाविरहित विशिष्टाद्वैत तथा उस पर आधारित प्रपत्तिपूर्ण भक्तिधर्म का प्रतिपादन किया। रामानुज द्वारा स्थापित भक्ति-धर्म श्रीवैष्णव कहा जाता है, क्योंकि विश्वास किया जाता है कि इसका प्रवर्तन स्वयं श्री लक्ष्मीनारायण के द्वारा हुआ है। लक्ष्मीनारायण इसके उपास्य देव हैं।
रामानुज की मृत्यु के सौ वर्ष के भीतर दक्षिण में एक अन्य आचार्य मध्व हुए, जिनके नाम पर माध्व मत प्रसिद्ध हुआ। मध्वाचार्य का आध्यात्मिक सिद्धान्त भेदवाद या द्वैतवाद है। भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ब्रह्मसम्प्रदाय की स्थापना की, क्योंकि उसके मूल प्रवर्तक स्वयं ब्रह्म माने जाते हैं। मध्वाचार्य ने स्पष्ट रूप में मायावाद-अद्वैतवाद का खण्डन करके भक्ति का पथ प्रशस्त किया। दक्षिण भारत में इस भक्ति-सम्प्रदाय ने, विशेष रूप से कर्नाटक और दक्षिणी महाराष्ट्र में कृष्णभक्ति का व्यापक प्रचार किया। बंगाल का गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय भी माध्व मत की एक शाखा कहा जाता है। मध्वाचार्य का एक नाम आनन्दतीर्थ भी था। इनके लिखे तीस ग्रन्थ कहे जाते हैं, जिनमें 'गीताभाष्य', 'ब्रह्मसूत्रभाष्य', 'अणुभाष्य', 'अनुपाख्यान' , 'दशोपनिषदभाष्य' , 'गीतातात्पर्यनिर्णय' , 'भागवततात्पर्य-निर्णय', 'महाभारततात्पर्य-निर्णय' मुख्य है।
दक्षिण के आचार्य
दक्षिण के ही एक और आचार्य निम्बार्क या निम्बादित्य प्रसिद्ध हैं। रामगोपाल भण्डारकर के अनुसार इनका समय बारहवीं शताब्दी (मृत्यु 1162 ई.) है। कुछ लोगों का विचार है कि ये इससे भी पूर्व हुए थे और इनका भक्ति-सम्प्रदाय सबसे प्राचीन है। जाति के ये तैलंग ब्राह्मण और बेलारी ज़िले के निवासी बताये जाते हैं। परन्तु दक्षिण में निम्बार्क की कोई परम्परा नहीं मिलती। इनके सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र वृन्दावन ही है तथा गोवर्धन के समीप निम्ब गाँव इनका स्थान कहा जाता है। इनका असली नाम नियमान्द था, निम्बादित्य या निम्बार्क नाम एक चमत्कार के फलस्वरूप मिला था। कहते हैं, स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें गोपालमन्त्र की दीक्षा देकर कृष्णोपासना का उपदेश दिया था। अपने 'वेदान्तपारिजातसौरभ' में इन्होंने बिना किसी का खण्डन किये ब्रह्मसूत्र की संक्षिप्त सृत्ति के रूप में अपने द्वैताद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। 'दशश्लोकी' 'श्रीकृष्णस्तवराज', 'मन्त्ररहस्यषोडशी' , 'प्रपन्नकल्पबल्ली' आदि इनकी कुछ और छोटी-छोटी रचनाएँ हैं। भक्ति के प्रचार के लिए अपने द्वैताद्वैतवाद पर आधारित 'सनकादि-सम्प्रदाय' इन्होंने स्थापित किया। इसे हंस-सम्प्रदाय, सनातन-सम्प्रदाय और देवर्षि-सम्प्रदाय भी कहते हैं।
दक्षिण के उपर्युक्त तीन आचार्यों के अतिरिक्त विष्णुस्वामी नाम के एक और आचार्य प्रसिद्ध हैं। परन्तु उनके समय, स्थान तथा धार्मिक विश्वास के सम्बन्ध में इतना अधिक मतभेद है तथा उसे दूर करने की सामग्री इतनी स्वल्प है कि उनके सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित रूप से कह सकना सम्भव नहीं जान पड़ता। कहा जाता है कि विष्णुस्वामी द्रविड़ देश के किसी राजा के मन्त्री के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही उनके हृदय में धार्मिक संस्कार दृढ़ हो गये थे। स्वयं वंशीधारी किशोर श्याम ने उन्हें दर्शन देकर बताया था कि निराकार रूप के अतिरिक्त मेरा साकार रूप भी होता है। मुझे प्राप्त करने का सुगम उपाय साकार की भक्ति ही है। फलत: विष्णुस्वामी ने बालकृष्ण की मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी और भक्ति का उपदेश देना प्रारम्भ किया। भक्तमाल 'भक्तमाल[14] के उल्लेख के आधार पर विष्णु स्वामी का समय 13 वीं शती अनुमान किया है, परंतु यह निर्णय बहुत मान्य नहीं कहा जा सकता। विष्णुस्वामी नाम के कम-से-कम तीन भक्तों का पता चला है। इनमें से कौन विष्णुस्वामी शुद्वाद्वैत मत के प्रतिपादक तथा भक्ति के 'रुद्रसम्प्रदाय' के संस्थापक थे, यह कहना सम्भव नहीं है। वस्तुस्थिति यह जान पड़ती है कि शुद्धाद्वैत की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए ही उसका सम्बन्ध विष्णुस्वामी से जोड़ा जाता है।
शास्त्रीय रूप
दसवीं से तेरहवीं-चौदहवीं शती तक इस प्रकार भक्ति का आन्दोलन दक्षिण में शास्त्रीय रूप धारण करके तथा आध्यात्मिक पक्ष में दृढ़ होकर पुन: उत्तर की ओर आया और चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक प्रबल वेग के साथ देश के विस्तृत भूभाग में महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, मध्यदेश, मगध, उत्कल, असम और वंगदेश में फैलकर व्यापक लोकधर्म बन गया। उत्तर भारत में इसका नवीन रूप में प्रचार करने वाले सबसे प्रथम और सबसे अधिक शक्तिशाली स्वामी रामानन्द हुए, जिन्होंने आध्यात्मिक दृष्टि से रामानुज के विशिष्टाद्वैत को ही मानते हुए भक्ति का पृथक् सम्प्रदाय स्थापित किया, जिसमें दाक्षिणात्य श्रीवैष्णवों की तरह स्पर्शास्पर्श के नियम कठोर नहीं थे। लक्ष्मीनारायण के स्थान पर उन्होंने सीताराम को उपास्य देव बनाया। रामानन्दी वैष्णव वैरागी वैष्णव कहे जाते हैं। रामानन्द की दो प्रकार की शिष्य-परम्पराएँ और थीं। एक में निम्न जातियों के लोग थे और दूसरी में सवर्ण लोग। मध्ययुग में भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त-कवियों में एक के प्रतिनिधि कबीरदास और दूसरी के तुलसीदास हुए।
चौदहवीं-पन्दहवीं शती में कबीर, रैदास आदि निर्गुणोपासक सन्तों की भक्ति अधिक प्रबल रही, परन्तु आगे की शताब्दियों में वल्लभाचार्य (1478-1530) के शुद्धाद्वैत पर आधारित पुष्टिमार्ग, निम्बाचार्य द्वारा प्रतिपादित निम्बार्क संप्रदाय और उत्तर भारत में उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य, औदुम्बराचार्य, गौरमुखाचार्य और लक्ष्मण भट्ट द्वारा प्रचारित सनकादि सम्प्रदाय, मध्वाचार्य के ब्रह्म या माध्व सम्प्रदाय, गोसाई हितहरिवंश (1503) के राधावल्लभ सम्प्रदाय, स्वामी हरिदास के हरिदासी या सखी सम्प्रदाय तथा चैतन्य महाप्रभु के गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय ने कृष्णभक्ति-आन्दोलनों के रूप में भागवत धर्म को समय के आवश्यकतानुसार नवीन रूप दिया और समग्र लोक-जीवन को आमूल प्रभावित करके उसे नयी आशा, उमंग और क्रियात्मक शक्ति से अनुप्राणित किया। दूसरी ओर गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति के रूप में प्रेम भक्ति और मर्यादा भक्ति का अपूर्व समन्वय करके भक्ति-धर्म को एक नवीन सामाजिक शक्ति प्रदान की। मध्ययुग में भक्ति का प्रचार करने वाले सभी सम्प्रदायों पर उनके अनुयायी भक्त कवियों ने 'श्रीमद्भागवत' ही मध्ययुगीन भागवत धर्म का अक्षय स्रोत है। वल्लभ-सम्प्रदाय में तो उसे प्रस्थानत्रयी के साथ सम्मिलित करके 'प्रस्थानचतुष्टय' नाम से भक्ति-धर्म का आकार माना गया है।
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