Sunday, April 24, 2011

संकल्प और समर्पण



संकल्प और समर्पण। अगर अर्थ की दृष्टि से देखा जाए, तो दोनों ही विरोधाभासीबातें हैं। या तो आप संकल्प कर सकते हैं, या फिर समर्पण। जैसे युद्ध में सामने वाले ने हथियार छोड दिए, तो समझो कि समर्पण हो गया। जब तक लड रहे थे, तो संकल्प से लड रहे थे।
लेकिन जब संकल्प हारा, तो समर्पण किया। लेकिन अध्यात्म में संकल्प और समर्पण साथ-साथ चलते हैं। संकल्प करें और ईश्वर से कहें कि वह मेरे संकल्प को पूरा करे।
संकल्प की शक्ति का बीज सब में होता है, लेकिन अगर आप बीज को मिट्टी में न डालो, उसको खाद, पानी न दो, तो वह फूटेगा ही नहीं। बडे-बडे संकल्प मत करो कि मोक्ष पाएंगे, ब्रह्मज्ञान पाएंगे, समाधि पाएंगे। छोटे-छोटे संकल्प लो। व्यावहारिक बात करो।
छोटे-छोटे कदम उठाओ, तो हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। यह मत कहो कि हजारों मील चलना है, पर मुझ में शक्ति नहीं। घबराओ मत, हजारों मील नहीं, तो एक कदम तो चल सकते हो। एक-एक कदम ही चलो। संकल्प की शक्ति का विकास करने के लिए छोटे-छोटे प्रयोग करें, जैसे हम अन्न नहीं खाएंगे। 24घंटे तो बहुत लंबा है, तुम छोटा समय लो। घडी देखो और संकल्प करो कि अगले आधे घंटे तक मैं मौन रहूंगा। अगर आधा घंटा तुम मौन रह गए, तो समझ लो कि उतनी शक्ति संकल्प की बढ गई। फिर इसी तरह धीरे-धीरे बढाते रहो। संकल्प की शक्ति को विकसित करने के लिए छोटे-छोटे उपाय करो। जैसे आप सुबह नहीं उठ पाते हैं, तब रात को सोने से पहले अलार्म भर दो, फिर प्रार्थना भी करो-प्रभु! सुबह पांच बजे उठा देना। घडी अलार्म बजाना भूल सकती है, पर तुम्हारे अंदर का अलार्म ठीक समय पर बज जाएगा। आप संकल्प-शक्ति का उपयोग सही तरीके से कर नहीं रहे हैं। तुम कहते हो कि सुबह उठूं और तुम्हारा मैं कहता है कि आज सो जाता हूं, कल उठ जाऊंगा। संकल्प में दृढता होनी चाहिए।

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