भारत में
त्योहारों की रचना बड़े शानदार ढंग से की गई है। हमने रंगों को भी त्योहार से जोड़
दिया है। जिंदगी रंगीन होनी चाहिए, इस पंक्ति
का अर्थ है जीवन में सुख और शांति दोनों एक साथ हो। होली के बाद रंगपंचमी पर
जलविहीन रंग एक-दूसरे को लगाने का बड़ा आध्यात्मिक अर्थ है।
हम अपने
हाथों से किसी को रंग लगा रहे हों और कोई दूसरा जब हमें रंग लगा रहा हो, तब उस अबीर-गुलाल के ‘कलर’ पर मत टिक जाइए, क्योंकि
कलर केवल एक शरीर है। इस शरीर के भीतर की आत्मा को समझते हुए रंग लगाएं और लगवाएं।
इसे यूं समझ लें कि हमारे यहां भोजन की शुद्धि पर बड़ा जोर दिया गया है। इसीलिए
कहा जाता है हर किसी के हाथ का बना हुआ भोजन न करें। घर की माता-बहन जब भोजन बनाकर
खिलाती है तो उनके हाथों की संवेदना और प्रेम तरंगों के रूप में भोजन में उतरते
हैं। थोड़े भी संवेदनशील व्यक्ति इसका असर महसूस भी कर सकेंगे।
आप बाहर
अच्छे से अच्छे महंगे स्थान का भोजन कर लें, लेकिन
गहराई से महसूस करें तो पाएंगे कि इसमें कोई न कोई कमी है। यह भोजन कुछ इस तरह का
होता है, जैसे निष्प्राण देह को सोलह श्रंगार करा दिया गया
है। इसीलिए बाहर का भोजन केवल शरीर का भोजन बनकर रह जाता है, आत्मा अतृप्त ही रहती है। होली हो या रंगपंचमी, इस दिन रंगों को हाथ में लेते समय यही भाव रखिए कि
आपकी आत्मा से होती हुई तरंगें हथेलियों से गुजरकर रंग के कणों में उतर रही हैं और
प्रेम का सेतु एक-दूसरे के बीच बना रहे। फिर इसमें जल का क्या काम, मन की तरंगें ही काफी हैं।