Saturday, March 3, 2012

हमारे मूड का कंट्रोल दूसरों के हाथों में रहता है

सबसे बड़ी विजय है अपने स्वभाव का स्वामी बनना। इसका अर्थ है जीवन पर स्वयं का नियंत्रण। अभी हमारा जीवन दूसरों से संचालित है। दूसरों की टिप्पणियों और राय से हमारा दिनभर तय होता है। हमारे मूड का कंट्रोल दूसरों के हाथों में रहता है। इसका कारण है मन पर हमारा ज्यादा टिकना। मन को दूसरों में रुचि होती है। बुद्धि को व्यवस्थित रखना हो तो ज्ञान काम आता है। भक्ति से भावनाएं संभाली जाती हैं, लेकिन मन को नियंत्रित करना हो तो साधना करनी पड़ेगी। केवल साधना से भी काम नहीं चलेगा। दरअसल मन का सबसे अच्छा नियंत्रण ध्यान या मेडिटेशन द्वारा ही होगा। इंद्रियों और मन को प्रशिक्षित करने की क्रिया ध्यान है। हमारी आंतरिक बेचैनी का केंद्र मन ही होता है। भारतीय संस्कृति ने साधना के जितने रूप बताए हैं, उनमें एक है जागरण। यह भी एक तरह की साधना है, जिसमें श्रवण द्वारा मन को नियंत्रित किया जाता है। आजकल भक्ति की दुनिया में जागरण का बहुत जोर है। जागरण को केवल एक रतजगा न मानें। ये तो परमपिता और जगद्माता की गोद में समय बिताने जैसा है। जागरण एक तरह का उपवास है। इसका शाब्दिक अर्थ है परमात्मा के पास बैठना। उपवास में हम इंद्रियों पर अपने नियंत्रण के प्रयोग करते हैं। उपवास का साधारण अर्थ समझा जाता है कि अन्न का भोजन नहीं करना, यानी पेट भरने के मामले में नियंत्रण। लेकिन मामला केवल उस उदर का नहीं है, जहां भोजन भरा जाता है। सच तो यह है कि हर इंद्रिय का अपना पेट होता है, जो उसके विषय से भरता है। जागरण करें या उपवास, अभ्यास यह करें कि मन पर नियंत्रण सधे। यहीं से शांति व सुकून मिलेगा।  

बाहरी रिश्तों के समान ही हमें स्वयं से भी रिश्ता बनाना चाहिए

संसार में रहते हुए हम अनेक लोगों से रिश्ते बनाते हैं। हर रिश्ता एक दायित्व होता है। दायित्व बोध आध्यात्मिक जागृति के लिए भी आवश्यक है। जिस तरह हम बाहरी रिश्ते बनाते हैं, हमें स्वयं से भी अपना रिश्ता बनाना चाहिए। इस बात पर बराबर नजर रखनी चाहिए कि हमारे स्वयं से रिश्ते कैसे हैं। क्या हम उसका निर्वहन ठीक से कर रहे हैं? दरअसल स्वयं से रिश्ता बनाने के लिए अपने भीतर उतरना पड़ता है। अध्यात्म कहता है - मनुष्य भविष्य में झांकने में रुचि रखता है। भविष्य में चुनौतियां हो सकती हैं, लेकिन अनुभव नहीं होता। अतीत में स्मृतियां होती हैं, इसलिए अपने अतीत से अनुभव प्राप्त करना चाहिए। अतीत का अनुभव हमें न सिर्फ पीछे ले जाता है, बल्कि अपने भीतर उतरने में भी मदद करता है। मनुष्य अपने भीतर जाकर ही जान सकता है कि यहां हमारा रिश्ता अपनी चेतना से हो जाता है। ध्यान रखें, भीतर उतरते समय अहंकार एक बाधा है, इसे जरूर दूर किया जाए। बाहरी रिश्ते निवेश के लिए होते हैं और भीतर का रिश्ता बोध के लिए बनता है। जैसे ही हम स्वयं से रिश्ता बनाते हैं, हमारे आसपास एक दैवीय शक्ति सुरक्षा के लिए सक्रिय हो जाती है। ध्यान हमारे लिए सरल होने लगता है। हमें बाहर की स्थितियों से विराम मिलने लगता है, हमारी आत्मा को उसकी खुराक प्राप्त हो जाती है। भीतर उतरते ही हमें अपने जीवन में कुछ परिवर्तन महसूस होंगे। कुछ लोग इन परिवर्तनों से घबरा जाते हैं, लेकिन ये परिवर्तन एक उपलब्धि है। यह हमारे विश्वास को बढ़ाएंगे। हमारे आसपास सौंदर्य, शांति और सुख की वृद्धि करेंगे। इसलिए इस रिश्ते को जीवन में जरूर पैदा करें। 

जीवन में जब तनाव आए तो उसे चुनौती मानकर स्वीकार करें

कोई काम करते हुए दबाव बन जाना स्वाभाविक है, लेकिन तनाव में आ जाना ठीक नहीं। प्रेशर और टेंशन के बीच की लक्ष्मण रेखा को हमें समझना चाहिए। तनाव को सांसारिक दृष्टिकोण से देखेंगे तो हम पाएंगे कि हमारे आसपास नेगेटिव ऊर्जा एकत्र हो गई है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि हमें सकारात्मक संकेत देगी। यह दृष्टि हमें बताएगी कि तनाव हमारी क्षमता को बढ़ा देगा। दरअसल तनाव सकारात्मक घटना का नकारात्मक नाम है। जीवन में जब तनाव आए, तब इसे चुनौती मानकर स्वीकार करेंगे तो तनाव दबाव में बदलेगा और दबाव की कार्यशैली हमारी योग्यता को बढ़ा देगी। एक प्रयोग किया जा सकता है। जब तनाव आए तो अपनी इंद्रियों पर लौट जाइए। उदाहरण के तौर पर जैसे आंख हमारी एक इंद्रिय है। हम आंखें बंद करें और पूरी तरह से उसी पर एकाग्र हो जाएं। एक आध्यात्मिक व्यवस्था है कि सभी इंद्रियां भीतर से अपने परिणामों को लेकर इंटरकनेक्टेट हैं। जिस दिन हम आंख नाम की इंद्रिय पर नियंत्रण करेंगे, हम पाएंगे कान पर भी हमारा नियंत्रण शुरू हो गया। आंख से जो हम भीतर दर्शन कर रहे होंगे, कान से भी दिव्य श्रवण होने लगेगा। यह एक नया अनुभव रहेगा। यह भीतरी अनुभव हमें बाहरी तनाव से मुक्त करेगा। बाहर काम तो होना ही है, आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करेगा, पर तनाव से परेशान होकर आप उस दौड़ में या तो बाहर हो जाएंगे या लडख़ड़ाकर गिर जाएंगे। अंतिम सफलता या तो असफलता में बदल जाएगी या अशांति में। अत: तनावमुक्त होने के लिए अपनी इंद्रियों पर लौटने का यह छोटा-सा प्रयोग करते रहें। 

Monday, October 31, 2011

वैष्णव धर्म / वैष्णव सम्प्रदाय / भागवत धर्म



वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पांचरात्र मत है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या 'भगवत' कहा गया है और भगवत के उपासक भागवत कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं। 'महाभारत'[1] के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है। नारद पांचरात्र के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का 'रात्र' अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है। 'ईश्वरसंहिता', 'पाद्मतन्त', 'विष्णुसंहिता' और 'परमसंहिता' ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है। 'शतपथ ब्राह्मण'[2] के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।

Sunday, October 23, 2011

धनतेरस: इस यंत्र के पूजन से मिलेगी दुनिया की हर खुशी

कौन नहीं चाहता कि उसके पास अथाह धन-संपत्ति हो। उसे दुनिया के सारे ऐशो-आराम मिले। कभी किसी चीज की कमी न हो। अगर आप भी यही चाहते हैं तो इस चमत्कारी यंत्र के माध्यम से आपका यह सपना पूरा हो सकता है। यह चमत्कारी यंत्र है कुबेर यंत्र। स्वर्ण लाभ, रत्न लाभ, गड़े हुए धन का लाभ एवं पैतृक सम्पत्ति का लाभ चाहने वाले लोगों के लिए कुबेर यंत्र अत्यन्त सफलता दायक है। इस यंत्र के प्रभाव से अनेक मार्गों से धन आने लगता है एवं धन संचय भी होने लगता है। इस यंत्र की अचल प्रतिष्ठा होती है। धनतेरस(24 अक्टूबर, सोमवार) को इस यंत्र की स्थापना कर इसका पूजन करें।

यंत्र का उपयोग

विल्व-वृक्ष के नीचे बैठकर इस यंत्र को सामने रखकर कुबेर मंत्र को शुद्धता पूर्वक जप करने से यंत्र सिद्ध होता है तथा यंत्र सिद्ध होने के पश्चात इसे गल्ले या  तिजोरी में स्थापित किया जाता है। इसके स्थापना के पश्चात् दरिद्रता का नाश होकर, प्रचुर धन व यश की प्राप्ति होती है।

मंत्र

ऊँ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन्य धन्याधिपतये धन धान्य समृद्धि में देहित दापय स्वाहा

इस प्रकार सजी थाली देखकर धन बरसाती हैं महालक्ष्मी

लक्ष्मी पूजन पूरे विधि-विधान से किया जाना अति आवश्यक है। तभी देवी लक्ष्मी की कृपा तुरंत ही प्राप्त होती है। पूजन के समय सबसे जरूरी है कि पूजा की थाली शास्त्रों के अनुसार सजाई जाए।

पूजा की थाली के संबंध में शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि लक्ष्मी पूजन में तीन थालियां सजानी चाहिए।

पहली थाली में 11 दीपक समान दूरी पर रखें कर सजाएं।

दूसरी थाली में पूजन सामग्री इस क्रम में सजाएं- सबसे पहले धानी (खील), बताशे, मिठाई, वस्त्र, आभूषण, चंदन का लेप, सिंदूर कुमकुम, सुपारी और थाली के बीच में पान रखें।

तीसरी थाली में इस क्रम में सामग्री सजाएं- सबसे पहले फूल, दूर्वा, चावल, लौंग, इलाइची, केसर-कपूर, हल्दी चूने का लेप, सुगंधित पदार्थ, धूप, अगरबत्ती, एक दीपक।

इस तरह थाली सजा कर लक्ष्मी पूजन करें।